Sunday, September 5, 2010

मधुवन नहीं रहा!


बढ़ता गया मकाँ लेकिन आँगन नहीं रहा,
पल भर जो दे सुकूँ वो दामन नहीं रहा.

दिल की ज़मीन अब तक सूखी ही पड़ी है,
लगता है अबकी रुत में सावन नहीं रहा.

इतने फरेब देखे दुनिया की राह में,
अपना कहे किसी को वो मन नहीं रहा.

हर शख्स ने चेहरे पे मुखौटे लगा लिए,
जो सच बता सके वो दर्पन नहीं रहा.

मायूस होके महफ़िल से लौटे हैं शेख जी,
हसरत है लेकिन क्या करें जोबन नहीं रहा.

इस तरह आदमी ने अपनी बढाई नस्ल,
गोपी हैं, ग्वाल हैं लेकिन मधुवन नहीं रहा.

----------------उमेश------------------------

10 comments:

  1. कमाल की ग़ज़ल कही है उमेश जी अपने जो शे'र पसंद आये
    दिल की ज़मीन अब तक सूखी ही पड़ी है,
    लगता है अबकी रुत में सावन नहीं रहा.

    इस तरह आदमी ने अपनी बढाई नस्ल,
    गोपी हैं, ग्वाल हैं लेकिन मधुवन नहीं रहा.

    मतला भी बेहतरीन है...लिखते/कहते रहें|

    word verification ki deewar hata den...comments me suvidha rahegi.

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  2. बढ़ता गया मकाँ लेकिन आँगन नहीं रहा,
    पल भर जो दे सुकूँ वो दामन नहीं रहा.

    इस तरह आदमी ने अपनी बढाई नस्ल,
    गोपी हैं, ग्वाल हैं लेकिन मधुवन नहीं रहा.

    बहुत बेहतरीन गजल कही है...

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  3. बहुत बेहतरीन गजल कही है|

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  4. बढ़ता गया मकाँ लेकिन आँगन नहीं रहा,
    पल भर जो दे सुकूँ वो दामन नहीं रहा.
    बेहतरीन गजल

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  5. भाई,
    बात अच्छी बन पड़ी है !
    'वो दर्पण नहीं रहा....'
    उस शीशे के चटखने की आवाज़ सर्वत्र सुनाई पड़ती है अब तो !...
    ब्लॉग-जगत में आपका स्वागत है !
    आनंद.व्. ओझा.

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  6. दिल की ज़मीन अब तक सूखी ही पड़ी है,
    excellent expression

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  7. उमेश जी बधाई आपको इस बेहतरीन विचारोद्वेलक ग़ज़ल के लिए.

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  8. शानदार गजल के लिए आपको अशेष शुभकामनायें ........!!

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  9. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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  10. ateew sunder...............kya baat....kya baat........kya baat............

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