बढ़ता गया मकाँ लेकिन आँगन नहीं रहा,
पल भर जो दे सुकूँ वो दामन नहीं रहा.
दिल की ज़मीन अब तक सूखी ही पड़ी है,
लगता है अबकी रुत में सावन नहीं रहा.
इतने फरेब देखे दुनिया की राह में,
अपना कहे किसी को वो मन नहीं रहा.
हर शख्स ने चेहरे पे मुखौटे लगा लिए,
जो सच बता सके वो दर्पन नहीं रहा.
मायूस होके महफ़िल से लौटे हैं शेख जी,
हसरत है लेकिन क्या करें जोबन नहीं रहा.
इस तरह आदमी ने अपनी बढाई नस्ल,
गोपी हैं, ग्वाल हैं लेकिन मधुवन नहीं रहा.
----------------उमेश------------------------