मेरे सिरहाने तेरा ख़त रक्खा हुआ है अब तक,
चाँद भी आसमाँ पे ठहरा हुआ है अब तक.
तू मेरे पास नहीं फिर क्यूँ गुमाँ होता है ये,
मेरे शाने पे तेरा सर रक्खा हुआ है अब तक.
यूँ तो कब का निकल जाना था दम मेरा,
तुझसे मिलने की चाह में अटका हुआ है अब तक.
चोट तुझको भी लगी, दिल तेरा भी जला है शायद,
देखो चेहरे पे धुआं ठहरा हुआ है अब तक.
दवा हर एक आजमाई शेख जी लेकिन,
ज़ख्म तो रोज़ ही गहरा हुआ है अब तक.
--------उमेश---------------------
भावपूर्ण प्रस्तुति
ReplyDelete"दवा हर एक अजमाई शेख जी लेकिन
जख्म तो रोज ही गहरा हुआ है अब तक "
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ
आशा
बहुत ही अच्छा लिखा है। लिखते रहिये चीज़ों की परवाह किये हुए बग़ैर। जिंदगी ने इतना सिखाया है और भी सिखाएगी
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