
बढ़ता गया मकाँ लेकिन आँगन नहीं रहा,
पल भर जो दे सुकूँ वो दामन नहीं रहा.
दिल की ज़मीन अब तक सूखी ही पड़ी है,
लगता है अबकी रुत में सावन नहीं रहा.
इतने फरेब देखे दुनिया की राह में,
अपना कहे किसी को वो मन नहीं रहा.
हर शख्स ने चेहरे पे मुखौटे लगा लिए,
जो सच बता सके वो दर्पन नहीं रहा.
मायूस होके महफ़िल से लौटे हैं शेख जी,
हसरत है लेकिन क्या करें जोबन नहीं रहा.
इस तरह आदमी ने अपनी बढाई नस्ल,
गोपी हैं, ग्वाल हैं लेकिन मधुवन नहीं रहा.
----------------उमेश------------------------
कमाल की ग़ज़ल कही है उमेश जी अपने जो शे'र पसंद आये
ReplyDeleteदिल की ज़मीन अब तक सूखी ही पड़ी है,
लगता है अबकी रुत में सावन नहीं रहा.
इस तरह आदमी ने अपनी बढाई नस्ल,
गोपी हैं, ग्वाल हैं लेकिन मधुवन नहीं रहा.
मतला भी बेहतरीन है...लिखते/कहते रहें|
word verification ki deewar hata den...comments me suvidha rahegi.
बढ़ता गया मकाँ लेकिन आँगन नहीं रहा,
ReplyDeleteपल भर जो दे सुकूँ वो दामन नहीं रहा.
इस तरह आदमी ने अपनी बढाई नस्ल,
गोपी हैं, ग्वाल हैं लेकिन मधुवन नहीं रहा.
बहुत बेहतरीन गजल कही है...
बहुत बेहतरीन गजल कही है|
ReplyDeleteबढ़ता गया मकाँ लेकिन आँगन नहीं रहा,
ReplyDeleteपल भर जो दे सुकूँ वो दामन नहीं रहा.
बेहतरीन गजल
भाई,
ReplyDeleteबात अच्छी बन पड़ी है !
'वो दर्पण नहीं रहा....'
उस शीशे के चटखने की आवाज़ सर्वत्र सुनाई पड़ती है अब तो !...
ब्लॉग-जगत में आपका स्वागत है !
आनंद.व्. ओझा.
दिल की ज़मीन अब तक सूखी ही पड़ी है,
ReplyDeleteexcellent expression
उमेश जी बधाई आपको इस बेहतरीन विचारोद्वेलक ग़ज़ल के लिए.
ReplyDeleteशानदार गजल के लिए आपको अशेष शुभकामनायें ........!!
ReplyDeleteहिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
ReplyDeleteकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
ateew sunder...............kya baat....kya baat........kya baat............
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